Friday, February 17, 2012

तुम्हें क्या पता

समुन्दर पर बारिशें और नींद लापता
सीप की खुली आँखों को किसी बूँद का इंतज़ार
कुछ ऐसी ही तो है मेरी भी चाहत
तुम्हें क्या पता


आँखों में तैरती आकाशगंगा और चाँद लापता
फिर थकी पलकों से आंसुओं की विदाई
कुछ ऐसे ही तो मिलती है दर्द से राहत
तुम्हें क्या पता


कागज़ पर लिखी परछाई और देह लापता
खुद को मिटते देखा यूँ ही कई बार
कुछ ऐसे ही तो होती है अपने वजूद से बगावत
तुम्हें क्या पता


ये जिस्म तुम्हारे दर पर और रूह लापता
एक दिन तुमको भी छोड़ जायेंगे अकेला
कुछ ऐसे ही तो निभा जायेंगे तुमसे हम अदावत
तुम्हें क्या पता

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