Monday, April 25, 2011

अचानक से

धडकने रुक सी जाती हैं
ओस की बूंदें
अलसाई पलकों से टकराकर
जैसे पूछ रही हों मेरे ह्रदय का पता
फिर अपने भीतर की
हरियाली को बिछा देता हूँ मैं
सम्पूर्ण धरा पर
किसी सर्द सुबह
हल्की-हल्की उड़ती सी धुंध कोई
सामने ले आती है
तुम्हारा चेहरा जब
अचानक से


एक ख़ामोशी सी छा जाती है
शब्द पिघल कर धूप में
घुल जाते हैं
फिर बादल का टुकड़ा कोई
घेर लेता है मेरे अस्तित्व को ही
एक ठण्डी छाँव
उतरने लगती है मुझ में
शहर का ये कोलाहल
भीड़ के बीचों-बीच से
आवाज देकर तुमसे मिला
देता है मुझे जब
अचानक से


एक सिहरन सी उठती है
और ये सांझ भली लगती है
कई रंग मन में उठते हैं
और फिर रंगते हुए बादलों को
पश्चिम के उस छोर तकचला जाता हूँ मैं
हाँ, सूरज बन कर पिघल जाता हूँ मैं
कोई शाम मेहरबान होकर
तुमसे मिला देती है
किसी न किसी बहाने जब
अचानक से

Friday, April 8, 2011

आखिरी खत

तुम कभी मुझे मत मिलना
हो सके तो
बस खत लिखना

कुछ भी लिखना
उम्मीदें, आशाएं और
मुस्कुराहटें लिखना
कुछ दर्द, कुछ शिकवे,
बेशक अपने
आंसू भी तुम लिखना
पर अपनी यादें मत लिखना


कुछ भी लिखना
सपनों को लिखना,
अपनों को लिखना
मौसम की करवटें
और जिंदगी में फैले
रंगों को भी
तुम लिखना
पर अपनी यादें मत लिखना

कुछ भी लिखना
अपने इर्द-गिर्द तैरते
चेहरों को लिखना
अखबारों की सुर्खियों
में लिपटी ख़बरों को
भी तुम लिखना
पर अपनी यादें मत लिखना


लेकिन मैं जानता हूँ
तुम भी लिखोगी मेरी तरह
अपनी यादें
जैसे मेरी कलम
उतर गई है यादों
के गलियारों में
और शब्दों के गीलेपन
के पीछे मेरी भीगी पलकें
देख रही हैं
तुम्हारा
सिर्फ तुम्हारा चेहरा

कभी कभी बस यूँ ही

कभी कभी बस यूँ ही
ये दिल जब तुम्हे ढूँढने निकलता है
तुम एक छाँव बन कर
चुपके से आते हो
मैं आँखें बंद करती हूँ
और तुम मुझे बस छू कर निकल जाते हो



कभी कभी बस यूँ ही
ये दिल जब संग परछाईयों के चलता है
तुम हर मोड़ पर खड़े नज़र आते हो
मैं चाह कर भी नहीं रूक पाती हूँ
और तुम हाथ हिलाते दूर निकल जाते हो



कभी कभी बस यूँ ही
बादल जब आँखों में ही रूक जाते हैं
तुम बन कर पवन उड़ा उन्हें ले जाते हो
मैं कहीं रो ना दूँ तन्हाई में
तुम मेरी पलको को बस चूम कर निकल जाते हो


कभी कभी बस यूँ ही
जब सर्द रातों में नींद नहीं आती है
तुम अहसास बनकर
बाहों में सिमट आते हो
और लाते हो
नींद को उंगली थामे पास मेरे तुम
सौंप नींद को फिर मुझे,
दूर कहीं निकल जाते हो

ये ख़ालीपन

मुझ में अब कोई नहीं रहता
तुम भी नहीं
पर ये ख़ालीपन
जो तुम छोड़ गये हो
मुझ से अलग नहीं होता

कल फिर मैने चाँद को देखा था
छत से अपनी
सोचा था कुछ देर रो लूँगी
इतनी दूर भी नहीं वो
कि दर्द मेरा न पहुँचे उस तक
पर पता नहीं क्यों
उस ने मुझे नहीं पहचाना

आजकल समय
और मैं ही एक दूसरे को पहचानते हैं
अच्छी तरह से
वो अक्सर मेरे पास से गुजरता है
निशब्द
पर मुझे लगता है कि
जैसे उसने मुझ से
कहा -अरे! तुम यहीं हो?

इस गतिमान जग में
जड़ता की परिभाषा बनकर
रह गई हूँ
तभी तो हवा मुझे नहीं उड़ाती
धूप मुझे नहीं तपाती
छाँव संग नहीं ले जाती अपने
पानी भी तो नहीं बहता
आँखों से अब मेरी

तुम्हारे लौट आने कि चाह
दफ़न है
जिस किताब के पन्नों में
शब्द उसके धुल चुके हैं
और जो उल्टी रखी हुई
है छाती पर अब भी मेरे
पर नींद है कि नहीं आती

बहुत से नये शब्द बुन लिए हैं
खुद से
इन्हीं को उड़ेल कर
देखूँ अपने ख़ालीपन में
पर मुझे ऐसा क्यों लगने लगा है
कि तुम फिर से मेरे भीतर आ
रहे हो चुपके चुपके

एक परिंदा

एक परिंदा
हांफता लौटा है
जगह जगह जिसने चूमा था आसमां
घोंसले में जगह कम है
पर अपनी तो है
यही कह कर इस सन्नाटे ने
मुझे दी है पनाह
और उड़ेल दिया है मेरे भीतर
मौन सिर्फ मौन
दरवाजे भीतर से खुलते हैं
तुम आना निशब्द
ऐसे ही इसी मौन में लिपटे
एक ठण्डी कब्र
तुम्हारे इन्तजार में खोदी है
पर हाँ,
अब की बार
यह मत कहना कि तुम आसमां हो
इस ख़ामोशी में
बहुत से पंख गिरे पड़े हैं
खूब समझते हैं
आसमां के छलावों को

वजूद


वो लम्हे
जो आंसुओं में लिपटे
मिले थे राहों में
जिंदगी ने उठा लिए
और फिर
चल पड़ी है
पलकों में सजाकर
एक तलाश मगर
गुमसुम सी बैठी है
इन आँखों में
जैसे कोई छूट गया है


इन आंसुओं
को किसी ने नहीं माँगा
हाँ
कुछ ख्वाब थे
आसमां को दे दिए
नींदें थी रातों को
सौंप दी
और चाँद ने मांगी
मुस्कराहट तो इनकार
न कर सके
फिर भी
क्यों लगता है मुझको
जैसे कोई रूठ गया है


अब तक नहीं
लौटा है साया भी मेरा
और तेरा नाम भी
गुम है इन
होंठों से निकलकर
मेरे ही आगोश में
लिपट कर रोता है
ये सूना-सूना
वजूद मेरा
जैसे कोई लूट गया है

निगाहें

निगाहें


कितनी दूर तक जा कर
लौट आई हैं खाली खाली सी मेरी निगाहें
जैसे एक मायूस दस्तक
देर शाम खड़ी हो जाती है
मेरे द्वार पर
और फिर मैं
पलकों को बंद कर
समेटने लगती हूँ
वही स्याह ख़ामोशी
अपने भीतर

कितनी दूर तक जा कर
लौट आई हैं खाली खाली सी मेरी निगाहें
जैसे मेरा ही कोई टूटता ख्वाब
गुम होने से पहले
पहचान कर मेरी हथेलियों को
बिखरा देता है
गर्म राख
और मैं पी जाती हूँ
उसकी दहक को
चुपचाप

कितनी दूर तक जा कर
लौट आई हैं खाली खाली सी मेरी निगाहें
जैसे मेरा ही लिखा कोई खत
रात भर रोता रहा मेरे सिरहाने
और फिर
सुबह तक
धुल गया उसका नाम
जिसको लिखा था
वो खत मैंने

एक मौन स्पर्श तुम्हारा

एक मौन स्पर्श तुम्हारा
मुझ में ही रहता है हरदम
मेरी साँसों के संग बहता
रूह से लिपटा
थोड़ा शर्मिला सा,
थोड़ा चन्चल सा
और
जो मुझे यकीन दिलाता है
कि तुम हो मुझ में ही


एक मौन स्पर्श तुम्हारा
मेरी आँखों में है झांकता
एक मीठी सी छूअन लिए
जो रखता है हिसाब
मेरी आँखों में उभरी बूंदों का
और जो अक्सर रह जाता है
ठगा सा
जब मेरे होंठ मुस्कुराते हैं
और आँख भर आती हैं

एक मौन स्पर्श तुम्हारा
मेरे सिरहाने रहता है अक्सर
मेरे माथे और मेरे बालों में
बिखेरता शीतल लहरों को
फिर एक लोरी मेरे भीतर है गूँजती
और मुझे यकीन होने लगता है
कि तुम सचमुच मुझ में हो

एक मौन स्पर्श तुम्हारा
उंगली थामे ले जाता है मुझे बचपन में
जब मिट्टी में उगते थे सपने
और आसमान लगता था नीचे
जब लहरों से नहीं लगता था डर
और परछाईयों साथ नहीं चलती थी
तुम्हारा मौन स्पर्श मुझे
ले जाता है आईने के सामने

एक मौन स्पर्श तुम्हारा
कुछ नहीं कहता
न चाँद की बातें, न तारों की कहानी
पर
मेरे कदम जानते हैं
कि दूर् तक तुमने अपनी हथेलियाँ
बिछा दी हैं….

क्या तुम्हें याद है


क्या तुम्हें याद हैं
ओस की वो नन्हीं बूँदें
हरी दूब पर बिखरी
वो सर्द रातों की मीठी मीठी आहें
जो रोज सुबह मोती बन बिछ जाती थी
स्वागत में तुम्हारे

क्या तुम्हें याद है
कोहरे में लिपटी
उन बर्फीली हवाओं का संदेश
जो रोज सुबह
अधखुली खिड़की से
घुसकर तुम्हारे सिरहाने
खड़ा हो जाता था
और जिस में छुपा होता था
वो मौन निमंत्रण
उन्हीं नन्हीं बूंदों का
और फिर चल पड़ते थे
तुम्हारे नंगे पैर
हरी दूब की ओर


क्या तुम्हें याद है
उन नन्हीं बूंदों की वो अन्तिम भेंट
वो सर्दीला चुंबन
वो कुछ मीठी, कुछ ठंडी सिहरन
वो गीला गीला अहसास
जो तुम्हारी अनायास बंद होती
आँखों में घुल जाता था
एक मीठी सी कल्पना बन कर


रातें फिर सर्द हो चली हैं
और आज फिर
सिसकती रातों ने
कुछ नन्हीं बूँदें
मेरी हथेलियों में गिरा दी हैं
शायद ये रात के आँसू हैं
और मैने बिछा दिया है इन्हें
दूर् दूर् तक
फिर से उसी हरी दूब में
बस इंतजार है तो
सिर्फ तुम्हारे नंगे पैरों का

बहुत दिन हुए

बहुत दिन हुए
नहीं सुनी चूड़ियों की खन-खन
और घुंघरुओं की रुन-झुन
एक सन्नाटा मेरे भीतर जाग रहा है
और हर आहट में तलाश रहा है
वही आत्मीय स्पंदन
जिसकी अनुगूँज कैद है
मन में मेरे आज भी

बहुत दिन हुए
नहीं देखा है धूप का चमकना
शाम का उतरना
और चाँदनी का बिखरना
पर कब से उतर रहा हूँ
अंधेरे में सीडियां
जो पता नहीं तुम तक
जाती भी हैं या नहीं
पर उतर रहा हूँ

बहुत दिन हुए
नहीं जिया है किसी छुवन को
न कोई तपिश गुजरी है पास से
न देखा है शीतल पवन को
रेत पर जल रहे हैं
पाँव कब से
और लहरें मुझे देख कर
लौट रहीं हैं
जाने कब से

बहुत दिन हुए
नहीं झुका तुम्हारा आँचल
मेरी आँखों पर
नहीं बरसी गीली-उलझी लट
मेरे गालों पर
तुम अब भी हो
आखों में बादल जैसी
पर बरसती नहीं हो
कब से खड़ा हूँ
आईने के सामने
धुंधला सा मैं

अनकहे शब्द ये

अनकहे शब्द ये
बिखरे हैं कागज पर
अबूझ पहेली बनकर
तुम तक पहुँचते
तो शायद मोती होते
अब आँसू हैं

अनकहे शब्द ये
होंठों तक आकर
लड़खड़ा जाते थे
तुम तक पहुँचते
तो शायद फूल होते
अब राख हैं

अनकहे शब्द ये
तैरते थे आँखों में
अजानी भाषा में
तुम जान पाते
तो शायद दर्पण होते
अब कंकड़ हैं

अनकहे शब्द ये
गूँजते रहे दिल में
ओढ़ कर खामोशी
तुम सुन पाते
तो शायद गीत होते
अब रुदन हैं

अनकहे शब्द ये
अंधेरों में रहे भटकते
बुझे दीये बनकर
तुम तक उड़ पाते
तो शायद ख्वाब होते
अब जले पंख हैं

एक अहसास

आज फिर से
दिल ने रख दिया
आँखों के सामने
तुम्हारा धुंधला सा चेहरा
कुछ सच्चे आँसू
आँखों से विदा हुए
और वो एक झूठ
खड़ा रहा बेनकाब
कुछ देर यूँ ही
और फिर एक ख़ामोशी
चुपचाप उतर गई
आँखों में मेरी

आज फिर से
दिल ने मेरे होंठों पर
रख दी वही मधुर छुवन
तुम्हारा नाम.....
एक मुस्कराहट सच्ची सी
उभरी और निकल पड़ी
तुम्हारी तलाश में....
एक झूठ से हार
लौटी तो लाश बनकर...
और फिर दब गई
आहों में मेरी


आज फिर से
दिल ने सुनाई कानों को मेरे
तुम्हारी वो जानी-पहचानी आहट
एक अहसास तुम्हारा सच्चा सा
मेरे इर्द-गिर्द लगा मंडराने
फिर एक हँसी गूंजी
दिल ने कहा ये भी
झूठ है, दिल्लगी है
पर मैं....
जानता हूँ यही सच है
तुम एक अहसास
बनकर घुली हुई हो
अब भी साँसों में मेरी

एक गलियारा



एक गलियारा
आँखों में उतर आता है
जब बंद कमरे की
दीवारों में जी रही घुटन
सांस लेने के लिए
खोलती है
कोई खिड़की


गलियारे के उस छोर
से तुम आती हो
और संग लाती हो
एक उजास
और फिर मैं रंगने लगता हूँ
उन सपनों को
जो अँधेरे में बेसुध पड़े थे
कब से

गलियारा निशब्द सौंप देता है
तुम्हें मेरे रंगों के हवाले
पर मेरे रंग
किसी नए झूठ को रंग नहीं पाते
और मैं
बस फिर से जी लेता हूँ
उन्हीं क्षणों को
जो सच्चे थे
और जिनमें थी
तुम्हारी बेखबर, चंचल
आँखों की मुस्कुराहटें और
होंठों की थिरकनों में
गूंजती वो पहेलियाँ
जिन्हें आज तक
सुलझा नहीं पाया हूँ

शायद तुमने कुछ कहा था

शायद तुमने कुछ कहा था
मैंने नहीं सुना
कुछ देखा था
या शायद नहीं
पर एक अनुभव
क्षणिक सा जिया था मैंने
जैसे कहीं से गिरी हो कोई
शबनमी बूँद
दिल के किसी मीठे से कोने में
और मेरे दिल की धडकनों को मिला था
एक हतप्रभ
सा विराम
तुम्हारे होंठों की वो कंपकंपाहट
छू के निकली थी मुझे
और मैं
तुम्हें सुन नहीं पाया था ...........



तुम्हरी आँखों के प्रश्न
तैरते हुए कब मेरे चेहरे से उतर कर
भीड़ में खो गए
मुझे नहीं मालूम
बस एक मासूम सी
कशिश
मुझको समेटने लगी थी
तुम्हारी आँखों में
और मैं विलीन होते
देखता रहा खुद को
जैसे छाँव निगल
जाती है धूप को
कहीं से अचानक आ जाता है जब
बादल का कोई टुकड़ा....
और मैं
तुम्हें सुन नहीं पाया था .......



फिर कहीं से लहराकर उतरी वो हवा
रख कर एक खुशबू
चुपके से
मेरे आगोश में
लौट गई
संग संग तुम्हारे
और मेरे होंठों पर
तैरती मुस्कराहट
बहुत देर तक
पीती रही उस नेह की बूँद को
जिसे अनजाने में ही सही
तुमने मुझे सौंप दिया था
जब तुम्हारे होंठों
से निकले थे कुछ शब्द
और मैं
तुम्हें सुन नहीं पाया था...............