Friday, April 8, 2011

क्या तुम्हें याद है


क्या तुम्हें याद हैं
ओस की वो नन्हीं बूँदें
हरी दूब पर बिखरी
वो सर्द रातों की मीठी मीठी आहें
जो रोज सुबह मोती बन बिछ जाती थी
स्वागत में तुम्हारे

क्या तुम्हें याद है
कोहरे में लिपटी
उन बर्फीली हवाओं का संदेश
जो रोज सुबह
अधखुली खिड़की से
घुसकर तुम्हारे सिरहाने
खड़ा हो जाता था
और जिस में छुपा होता था
वो मौन निमंत्रण
उन्हीं नन्हीं बूंदों का
और फिर चल पड़ते थे
तुम्हारे नंगे पैर
हरी दूब की ओर


क्या तुम्हें याद है
उन नन्हीं बूंदों की वो अन्तिम भेंट
वो सर्दीला चुंबन
वो कुछ मीठी, कुछ ठंडी सिहरन
वो गीला गीला अहसास
जो तुम्हारी अनायास बंद होती
आँखों में घुल जाता था
एक मीठी सी कल्पना बन कर


रातें फिर सर्द हो चली हैं
और आज फिर
सिसकती रातों ने
कुछ नन्हीं बूँदें
मेरी हथेलियों में गिरा दी हैं
शायद ये रात के आँसू हैं
और मैने बिछा दिया है इन्हें
दूर् दूर् तक
फिर से उसी हरी दूब में
बस इंतजार है तो
सिर्फ तुम्हारे नंगे पैरों का

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