Friday, April 8, 2011

निगाहें

निगाहें


कितनी दूर तक जा कर
लौट आई हैं खाली खाली सी मेरी निगाहें
जैसे एक मायूस दस्तक
देर शाम खड़ी हो जाती है
मेरे द्वार पर
और फिर मैं
पलकों को बंद कर
समेटने लगती हूँ
वही स्याह ख़ामोशी
अपने भीतर

कितनी दूर तक जा कर
लौट आई हैं खाली खाली सी मेरी निगाहें
जैसे मेरा ही कोई टूटता ख्वाब
गुम होने से पहले
पहचान कर मेरी हथेलियों को
बिखरा देता है
गर्म राख
और मैं पी जाती हूँ
उसकी दहक को
चुपचाप

कितनी दूर तक जा कर
लौट आई हैं खाली खाली सी मेरी निगाहें
जैसे मेरा ही लिखा कोई खत
रात भर रोता रहा मेरे सिरहाने
और फिर
सुबह तक
धुल गया उसका नाम
जिसको लिखा था
वो खत मैंने

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