Friday, April 8, 2011

शायद तुमने कुछ कहा था

शायद तुमने कुछ कहा था
मैंने नहीं सुना
कुछ देखा था
या शायद नहीं
पर एक अनुभव
क्षणिक सा जिया था मैंने
जैसे कहीं से गिरी हो कोई
शबनमी बूँद
दिल के किसी मीठे से कोने में
और मेरे दिल की धडकनों को मिला था
एक हतप्रभ
सा विराम
तुम्हारे होंठों की वो कंपकंपाहट
छू के निकली थी मुझे
और मैं
तुम्हें सुन नहीं पाया था ...........



तुम्हरी आँखों के प्रश्न
तैरते हुए कब मेरे चेहरे से उतर कर
भीड़ में खो गए
मुझे नहीं मालूम
बस एक मासूम सी
कशिश
मुझको समेटने लगी थी
तुम्हारी आँखों में
और मैं विलीन होते
देखता रहा खुद को
जैसे छाँव निगल
जाती है धूप को
कहीं से अचानक आ जाता है जब
बादल का कोई टुकड़ा....
और मैं
तुम्हें सुन नहीं पाया था .......



फिर कहीं से लहराकर उतरी वो हवा
रख कर एक खुशबू
चुपके से
मेरे आगोश में
लौट गई
संग संग तुम्हारे
और मेरे होंठों पर
तैरती मुस्कराहट
बहुत देर तक
पीती रही उस नेह की बूँद को
जिसे अनजाने में ही सही
तुमने मुझे सौंप दिया था
जब तुम्हारे होंठों
से निकले थे कुछ शब्द
और मैं
तुम्हें सुन नहीं पाया था...............

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