Friday, April 8, 2011

बहुत दिन हुए

बहुत दिन हुए
नहीं सुनी चूड़ियों की खन-खन
और घुंघरुओं की रुन-झुन
एक सन्नाटा मेरे भीतर जाग रहा है
और हर आहट में तलाश रहा है
वही आत्मीय स्पंदन
जिसकी अनुगूँज कैद है
मन में मेरे आज भी

बहुत दिन हुए
नहीं देखा है धूप का चमकना
शाम का उतरना
और चाँदनी का बिखरना
पर कब से उतर रहा हूँ
अंधेरे में सीडियां
जो पता नहीं तुम तक
जाती भी हैं या नहीं
पर उतर रहा हूँ

बहुत दिन हुए
नहीं जिया है किसी छुवन को
न कोई तपिश गुजरी है पास से
न देखा है शीतल पवन को
रेत पर जल रहे हैं
पाँव कब से
और लहरें मुझे देख कर
लौट रहीं हैं
जाने कब से

बहुत दिन हुए
नहीं झुका तुम्हारा आँचल
मेरी आँखों पर
नहीं बरसी गीली-उलझी लट
मेरे गालों पर
तुम अब भी हो
आखों में बादल जैसी
पर बरसती नहीं हो
कब से खड़ा हूँ
आईने के सामने
धुंधला सा मैं

No comments:

Post a Comment