Friday, April 8, 2011

एक गलियारा



एक गलियारा
आँखों में उतर आता है
जब बंद कमरे की
दीवारों में जी रही घुटन
सांस लेने के लिए
खोलती है
कोई खिड़की


गलियारे के उस छोर
से तुम आती हो
और संग लाती हो
एक उजास
और फिर मैं रंगने लगता हूँ
उन सपनों को
जो अँधेरे में बेसुध पड़े थे
कब से

गलियारा निशब्द सौंप देता है
तुम्हें मेरे रंगों के हवाले
पर मेरे रंग
किसी नए झूठ को रंग नहीं पाते
और मैं
बस फिर से जी लेता हूँ
उन्हीं क्षणों को
जो सच्चे थे
और जिनमें थी
तुम्हारी बेखबर, चंचल
आँखों की मुस्कुराहटें और
होंठों की थिरकनों में
गूंजती वो पहेलियाँ
जिन्हें आज तक
सुलझा नहीं पाया हूँ

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