Friday, April 8, 2011

ये ख़ालीपन

मुझ में अब कोई नहीं रहता
तुम भी नहीं
पर ये ख़ालीपन
जो तुम छोड़ गये हो
मुझ से अलग नहीं होता

कल फिर मैने चाँद को देखा था
छत से अपनी
सोचा था कुछ देर रो लूँगी
इतनी दूर भी नहीं वो
कि दर्द मेरा न पहुँचे उस तक
पर पता नहीं क्यों
उस ने मुझे नहीं पहचाना

आजकल समय
और मैं ही एक दूसरे को पहचानते हैं
अच्छी तरह से
वो अक्सर मेरे पास से गुजरता है
निशब्द
पर मुझे लगता है कि
जैसे उसने मुझ से
कहा -अरे! तुम यहीं हो?

इस गतिमान जग में
जड़ता की परिभाषा बनकर
रह गई हूँ
तभी तो हवा मुझे नहीं उड़ाती
धूप मुझे नहीं तपाती
छाँव संग नहीं ले जाती अपने
पानी भी तो नहीं बहता
आँखों से अब मेरी

तुम्हारे लौट आने कि चाह
दफ़न है
जिस किताब के पन्नों में
शब्द उसके धुल चुके हैं
और जो उल्टी रखी हुई
है छाती पर अब भी मेरे
पर नींद है कि नहीं आती

बहुत से नये शब्द बुन लिए हैं
खुद से
इन्हीं को उड़ेल कर
देखूँ अपने ख़ालीपन में
पर मुझे ऐसा क्यों लगने लगा है
कि तुम फिर से मेरे भीतर आ
रहे हो चुपके चुपके

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